यह कहना मुश्किल है कि नीरज पांडे की फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ कितनी खराब है और कितने मायनों में।
लेखक-निर्देशक नीरज पांडे, जिन्होंने लगातार आतंकवादी साजिशों (ए वेडनसडे!, बेबी और स्पेशल ऑप्स) को विफल करने के लिए समय के खिलाफ दौड़ रहे जासूसों और सरकारी एजेंटों को समर्पित कहानियां बनाई हैं, रोमांटिक शैली के दर्शकों को ‘अच्छे’ की चाहत को पूरा करने का प्रयास करते हैं। ‘, सूक्ष्म रोमांटिक ड्रामा। अफसोस की बात है कि वह ‘औरों में कहां दम था’ (एएमकेडीटी) में असफल हो गए। और, विस्तार से, उन्होंने अजय देवगन और तब्बू की स्क्रीन उपस्थिति को कम कर दिया, जो लंबे समय से कई खराब फिल्मों को बचाने वाले कारक रहे हैं।
फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ एक ऐसी कहानी है जो संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ के वनराज को छूकर लौट आती है। एक पति है, उसकी कारोबारी पत्नी है। दोनों मुंबई के सबसे महंगे इलाके की जिस इमारत में रहते हैं। यहां तक पहुंचने का, गरीबों की बस्ती जिसे मुंबई में चॉल कहते हैं, में रहने वाला शायद सपना भी न देख पाए। लेकिन, वसुधा वहां पहुंचती है। मांग में सिंदूर लगाए, सीने में राज दबाए उसकी जिंदगी बीस साल से यूं ही चल रही है। उसे जो प्रेम करता था, वह कृष्णा जेल से रिहा हो रहा है। डबल मर्डर में उसे 25 साल की सजा हुई थी। लेकिन, अच्छे चाल चलन ने उसकी सजा कोई ढाई साल कम करा दी है। दोस्त जिग्ना उसे लेने आता है। पासपोर्ट तैयार है। दुबई जाने की तैयारी है और उसके पहले की रात कयामत की है क्योंकि वसुधा अपने प्रेमी कृष्णा को अपने पति अभिजीत से मिलाना चाहती है। दो पूर्व प्रेमियों की साथ बिताई रात की कहानी फिल्म ‘96’ में विजय सेतुपति और तृषा ने खूब प्यारी गढ़ी। लगता यहां भी कि वसुधा और कृष्णा भी शायद मुंबई की किसी लोकल ट्रेन में घूमे लेकिन नीरज पांडे को ‘विक्रम वेधा’ की हिंदी रीमेक के सबक याद रह जाते हैं।
फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ की कहानी दो अलग अलग कालखंडों में चलती है। कहानी दोनों समय में एक ही जोड़े की है, लेकिन इसे कहने के लिए नीरज चार अलग कलाकारों की मदद लेते हैं। युवा कृष्णा और वसुधा के किरदारों में शांतनु महेश्वरी और सई मांजरेकर ने अद्भुत ओज के साथ प्रेम को निभाया है। सई मांजरेकर की देह भाषा, उनके चेहरे के भाव, उनका चलना, ठिठकना, शर्माना, मुस्काना सब बहुत सहज दिखता है। कहीं कहीं वह नूतन की याद भी दिला जाती हैं। नीरज पांडे ने जिस वसुधा की कल्पना की होगी, वह सई ही हो सकती हैं। शांतनु महेश्वरी जरूर अजय देवगन की जवानी का प्रतिरूप नहीं दिखते, खासकर लंबे बालों के साथ। जेल में जाकर बाल कटवाने के बाद शांतनु का जो रूप दिखता है, वैसा ही बाकी फिल्म में भी होता तो क्या ही असर आता इस किरदार में!
फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ की सबसे बड़ी कमजोरी है, इसका संगीत। एम एम कीरावणी और मनोज मुंतशिर ने मिलकर इसके लिए मेहनत बेशक काफी की है, लेकिन मनोज मुंतशिर की लिखाई का दर्द उनके बदले हालात के चलते शायद गुणा भाग में ज्यादा बदल गया है। वह अब लिखते हैं तो समझ आता है कि ये उनका स्वाभाविक प्रवाह नहीं है। अब वह दर्द लिखते नहीं बल्कि उसे लिखने के लिए शब्द तलाशते नजर आते हैं। एम एम कीरावणी की अपनी सीमाएं हैं। हिंदी की फिल्म वह उतनी ही समझ पाए होंगे जितनी उन्हें अंग्रेजी में समझाई गई होगी और भाषा बदलते ही प्रेम के भाव को प्रकट करने के जो भाव बदलते हैं, उसी की उलझ का शिकार हो गई है फिल्म ‘औरों में कहां दम था’। आखिर के आधे घंटे में नीरज पांडे ने एक ठीक ठाक प्रेम कहानी को एक थ्रिलर फिल्म बनाने के लिए जो तथाकथित ‘ट्विस्ट’ डालने की कोशिश की, उसने फिल्म को और उलझाया है।
फिल्म की रेटिंग की बात करें तो हम इसे 5 में से 3 स्टार देंगे