बॉलीवुड फिर से अपने ही बिछाए जाल में फंसता नजर आ रहा है. पिछले कुछ हफ्तों में तो बॉक्स ऑफिस पर इसकी कलई खुलती नजर आ ही रही है. फिर हर हफ्ते के साथ कोई ना कोई कमजोर फिल्म दर्शकों के आगे परोस दी जाती है जो दिमाग और पैसे दोनों का दही कर देती है. कोढ़ में खाज की बात यह कि इन फिल्मों में नामी-गिरामी कलाकार होते हैं. बड़ा बजट होता है. जबरदस्त पीआर होता है. देश-विदेश की शूटिंग होती है हर वो चीज होती है जो फिल्म को हिट नहीं बना सकती. लेकिन हर वो चीज मिस होती है जो फिल्म को चला सकती है, जैसे गहन रिसर्च, मजबूत कहानी, सधी हुई एक्टिंग और कसावट भरी एडिटिंग बस, जाह्नवी कपूर की फिल्म उलझ भी इन्हीं हालात की मारी है. ऐसी फिल्म की देखते हुए दर्शकों की मति ही मार देती है

उलझ की कहानी जाह्नवी कपूर की है. असल जिंदगी की तरह फिल्म में भी वो नेपोटिज्म का दंश झेल रही हैं. परिवार काफी रसूखदार है. उसे सरकारी नौकरी में नाम मिलता है और बड़ी तैनाती भी मिल जाती है. फिर विदेश में एक लड़के से झट मुलाकात और पट इश्क भी हो जाता है. फिर शुरू होता है ऐसा एक चक्रव्यूह जिसकी जाह्नवी ने कल्पना भी नहीं की थी और उसकी जिंदगी 360 डिग्री घूम जाती है. कई किरदारों की सच्चाई सामने आती है, कई उतार-चढ़ाव दिखाए जाते हैं. लेकिन डायरेक्टर सुधांशु सारिया राजी को अपना आदर्श मानकर इस फिल्म पर अपनी ही धुन में आगे बढ़ते जाते हैं. ना कहानी का सिर देखते हैं ना पांव. ना एक्टिंग के ए पर ध्यान देते हैं और ना ही डायलॉग डिलीवरी के बी पर. सब कुछ होता रहता है और एक समय आता है कि दर्शक का संयम दांव पर लग जाता है.

सिनेमा को ब्रिटेन में सब्सिडी भी खूब मिलती है। इस लिहाज से कहानी और कारोबार दोनों पलड़ों पर ‘उलझ’ की सेटिंग अच्छी है। कहानी भी अच्छी है। बस परवेज शेख की पटकथा ने काम खराब कर दिया है। परवेज को ‘क्वीन’ और ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी फिल्मों से मिली शोहरत अब तक काम आ रही है। यहां ध्यान रखना ये जरूरी है कि परवेज ने ही ‘मिशन मजनू’, ‘बेलबॉटम’, ‘ब्लैकमेल’, ‘बाजार’ और ‘ट्यूबलाइट’ जैसी फिल्में भी लिखी हैं। फिल्म की संवाद लेखक अतिका चौहान ने फिल्म के संवादों में एक लोकप्रिय मुहावरे का लिंग परिवर्तन करने के अलावा दूसरा कोई बड़ा काम ऐसा किया नहीं है, जो फिल्म देखने के बाद हॉल से बाहर निकलते समय याद रह जाए। कमजोर पटकथा और बनावटी संवादों के बोझ तले दबी फिल्म ‘उलझ’ दर्शकों के दिल तक लाने की पूरी जिम्मेदारी इसके सहायक कलाकारों ने ही उठाई है।

मुश्किल ये भी समझना है कि एक विदेशी प्रधानमंत्री किसी धार्मिक स्थल जाए और वहां उसी समय आम श्रद्धालुओं का भी आना-जाना जारी रहे। खैरात पाने वाले कतारों में बैठे हों और आसपास प्रधानमंत्री के लिए संकट पैदा करने वाले लोग इतनी आरामतलबी से अपना काम करते रहें, ऐसा वीआईपी प्रोटोकॉल के तहत होता नहीं है। फिल्म में रोशन मैथ्यू भारतीय उच्चायोग में तैनात रॉ के एजेंट बने हैं और क्लाइमेक्स में उनके असली संगठन का इशारा तो फिल्म के निर्देशक ने दिया ही है, फिल्म की सीक्वल बनाने का अपना मंतव्य भी जाहिर किया है। लेकिन, रोशन मैथ्यू की अभिनय प्रतिभा को फिल्म में देखने के लिए दर्शकों को इंटरवल के बाद तक का इंतजार करना पड़ता है।

फिल्म ‘उलझ’ में अभिनेता गुलशन देवैया के अभिनय में जान्हवी कपूर को मात देने का जज्बा ज्यादा दिखाई देता है और अपने किरदार पर टिके रहने का कम। ओवर एक्टिंग में वह पकड़े भी जाते हैं। जान्हवी और गुलशन के जितने भी सीन साथ में हैं, उन्हें देखकर ये समझा जा सकता है कि दोनों ने दो अलग अलग ध्रुवों वाली मानसिकता के साथ इस फिल्म में काम किया है। मेयांग चांग की भूमिका छोटी है लेकिन दमदार है। राजेश तैलंग को बड़े परदे पर मिला ये बड़ा मौका है और फिल्म की रोल रिवर्सल की सबसे मजबूत कड़ी बनकर उन्होंने अपनी उपयोगिता भी सिद्ध करने की कोशिश की है। अली खान, आदिल हुसैन और जैमिनी पाठक के जिम्मे फ्रेम सजाने का काम रहा जिसे उन्होंने भी निभाया भी उतने ही सलीके से। जितेंद्र जोशी इन सबके बीच अपना तुरुप का पत्ता फेंककर बाजी समेटने में सफल रहे।

अगर हम फिल्म की रेटिंग की बात करें तो हम इसे 5 में से 3 स्टार देंगे।