झनकार बीट्स के 22 साल किए पूरे, भारतीय सिनेमा की उन फिल्मों पर एक नज़र, जिन्होंने मेल फ्रेंडशिप और भावनात्मक संवेदनशीलता को फिर से परिभाषित किया

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*झनकार बीट्स के 22 साल: बॉलीवुड में पुरुषों के मित्रता को फिर से परिभाषित करने वाली कल्ट क्लासिक और अन्य फिल्मों का सिलेब्रेशन

*झनकार बीट्स, दिल चाहता है, ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा, और अन्य: बॉलीवुड की ऐसी फिल्में, जिन्होंने दोस्ती के ज़रिए और भाईचारे को नया रूप दिया

झनकार बीट्स के 22 साल: बॉलीवुड की ऐसी फिल्में, जिन्होंने पुरुष मित्रता और भावनात्मक संवेदनशीलता को फिर से परिभाषित किया।
प्रीतिश नंदी कम्युनिकेशंस द्वारा निर्मित कल्ट क्लासिक झनकार बीट्स अपनी 22वीं वर्षगांठ मना रही है, तो यह एक उपयुक्त समय है उस शैली को फिर से याद करने का, जिसे भारतीय सिनेमा ने 2000 के दशक की शुरुआत से पहले शायद ही सही तरीके से चित्रित किया था: वह शैली जिसमें पुरुष मित्रता के साथ गहराई और भावनात्मक जुड़ाव भी हो। इससे पहले, मेल फ्रेंड का मतलब अक्सर एक्शन सीक्वेंस, बहादुरी का प्रदर्शन, या मौन गंभीरता ही होता था। लेकिन झंकार बीट्स जैसी फिल्मों ने नज़रिया बदल दिया और हमें ऐसी दोस्ती से परिचित कराया जो कोमल, सहायक, भावनात्मक और यहाँ तक कि संवेदनशील भी थी।

यहाँ पाँच भारतीय फिल्मों की सूची दी गई है—’झंकार बीट्स’ से शुरू होकर—जिन्होंने पर्दे पर पुरुषों की मित्रता को देखने का नजरिया ही बदल दिया:

झनकार बीट्स
सुजॉय घोष द्वारा निर्देशित और प्रीतिश नंदी कम्युनिकेशंस द्वारा निर्मित ‘झंकार बीट्स’ अपने समय से काफी आगे की फिल्म थी। यह दीप और ऋषि की कहानी थी—दो विज्ञापन एजेंसी प्रोफेशनल्स जो डेडलाइन्स, पिता बनने की चुनौतियों, असफल विवाह और आर.डी. बर्मन के प्रति अपने प्रेम के बीच संतुलन बनाते हैं। देर रात की जुगलबंदियों और दिल से की गई बातचीतों के ज़रिए फिल्म ने यह दिखाया कि पुरुषों की दोस्ती भी भावुक, हास्य से भरी, जटिल और बेहद सच्ची हो सकती है। आज भी यह फिल्म उन सभी लोगों से जुड़ती है, जिन्होंने कभी अपनी ज़िंदगी में दोस्ती का सहारा लिया है।

दिल चाहता है
दिल चाहता है में आकाश, समीर और सिड की दोस्ती ने बॉलीवुड में पुरुष मित्रता को फिर से परिभाषित किया, जिसमें तीन दोस्तों को प्यार और जीवन के प्रति पूरी तरह से अलग-अलग व्यक्तित्व और दृष्टिकोण के साथ दिखाया गया। लेकिन फिर भी उनका आपसी भरोसा और वफादारी कभी नहीं डगमगाई। फिल्म यह बताती है कि सच्चे दोस्त एक-दूसरे से असहमत हो सकते हैं, लेकिन ज़रूरत के वक्त हमेशा एक-दूसरे के साथ खड़े रहते हैं। भाईचारे का मतलब हमेशा एक जैसा सोचना नहीं, बल्कि बिना शर्त परवाह करना होता है।

रंग दे बसंती
डीजे, करण, सुखी, असलम और उनके समूह का लापरवाह कॉलेज के दोस्तों से जोशीले क्रांतिकारियों में बदलना, जिन्होंने अपने मारे गए दोस्त को न्याय दिलाने के लिए स्टैंड लिया, यह दर्शाता है कि कैसे कुछ दोस्ती अक्सर शक्तिशाली भाईचारे में बदल जाती है। उदासीनता से सक्रियता तक का उनका सफ़र उनके सामूहिक दुःख और अपने दोस्त के लिए न्याय पाने के दृढ़ संकल्प से प्रेरित है।

काई पो चे
ईशान, गोविंद और ओमी की दोस्ती व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, प्रेम-संबंधों, धार्मिक तनावों और सामाजिक दबावों के बीच परीक्षा से गुजरती है। धोखे और गलतफहमियों के बावजूद, एक दूसरे के लिए उनका अंतर्निहित प्यार अंततः जीत जाता है। फिल्म दोस्ती की यथार्थवादी जटिलताओं को दर्शाती है, यह दिखाती है कि कैसे सच्चे भाईचारे में क्षमा, समझ और रिश्ते के लिए व्यक्तिगत लाभ का त्याग करने की इच्छा शामिल है।

जिंदगी ना मिलेगी दोबारा
अर्जुन, कबीर और इमरान की बैचलर ट्रिप एक ऐसी यात्रा बन जाती है जो न केवल उनकी दोस्ती को फिर से मजबूत करती है, बल्कि पुराने घावों को भी भरती है। फिल्म दिखाती है कि कैसे साझा रोमांच और ईमानदार बातचीत टूटे हुए रिश्तों को फिर से जोड़ सकती है और दोस्तों के बीच गहरी समझ पैदा कर सकती है। अपने डर का सामना करने, व्यक्तिगत खुलासे के माध्यम से एक-दूसरे का समर्थन करना, उनकी इच्छा उस तरह के भाईचारे को दर्शाती है जो दोस्तों के बीच उनके बॉन्डिंग को मजबूत करते हुए बेहतर व्यक्ति बनने में मदद करती है।

इन पाँच फिल्मों ने यह सिद्ध किया कि सच्ची दोस्ती केवल हँसी-मज़ाक या मज़े की बात तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह जीवन भर साथ निभाने वाला एक रिश्ता भी हो सकता है। ये कहानियाँ हमें यह याद दिलाती हैं कि दोस्त, जो जीवन की जद्दोजहद में हमारे साथ खड़े रहते हैं, वही अक्सर हमारे असली परिवार बन जाते हैं—और यही रिश्ता सबसे अनमोल होता है।

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